अम्मा की झोपडी में अल्लाह ने कैसे शैतान से भिजवाया खाना

हसीं की महफ़िल

एक छोटी सी झोपडी में नब्बे साल की बूढी अम्मा रहती थी और अल्लाह को याद कर तिलावत करती थी वो अपने ईमान के लिए पुरे गांव में मशहूर थी। वो रोज़ अपने घर के बाहर खड़े होकर सब आने  अल्हम्दुलीलाह कहती थी- सारी  तारीफे अल्लाह के नाम। बूढी औरत के पड़ोस में एक बे-ईमान लड़का रहता था जो अल्हम्दुलीलाह सुनते ही गुस्से में आ जाता था और बुढ़िया को समझाता था की "अल्लाह नहीं हैं, बेकार में अपना वक्त उसके लिए बर्बाद ना करो जो मौजूद ही नहीं हैं।" 

एक दिन ऐसा वक्त आया जब बूढी औरत बहुत बीमार थी और उसने कई दिनों से खाना नहीं खाया था, अकेली होने की वजह  औरत की देख-रेख करने को भी कोई नहीं था। बूढी औरत ने दबे हुए लफ्ज़ो में अल्लाह को याद करते हुए दुआ की की "ए मौला! परवरदिगार! मुझे खाना दे, मैंने बहुत दिनों से खाना नहीं खाया हैं।"

बूढी औरत की यह दुआ पड़ोस के बे-ईमान लड़के ने सुनी और बाज़ार से बूढी औरत के लिए खाने पिने का सामान व फल लाया और बूढी औरत के दरवाज़े के बाहर रख दिया। सुबह जब बूढी औरत उठी और अपना दरवाज़ा खोला तो उसने देखा एक बड़ी सी झोली जिसमे खूब सारा खाने पीने का सामन रखा हुआ हैं, यह देखते हैं बूढी औरत ने अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए कहा "अल्हम्दुलीलाह"

तभी लड़का अचानक से आकर बूढी औरत को हस्ते हुए कहता हैं "देखा मैंने कहा था ना, अल्लाह-वल्लाह कुछ नहीं हैं। यह खाने का सामन तो मैं  लाया हूँ, तुम्हारे अल्लाह नहीं!"

इस बात को सुनते ही बूढी अम्मा ख़ुशी से उछल-उछाल कर ताली बजाते हुए अल्लाह का शुक्र एवं तारीफों में ब्यान करते हुए ऊपर देख कहती हैं "अल्हम्दुलीलाह शुक्रिया! या मौला तूने ना केवल मुझे खाना भेजा बल्कि एक शैतान से खाने को खरीदवाया। शुक्रिया शुक्रिया शुक्रिया!"






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